एक रोज तो
कोई सोचेगा
दीवानों की बस्ती में.....
एक शख्श
था पागल पागल सा.....
पर बातें,
ठीक सी कहता था.....!!!
बारिश की तरह
पुरशोर न था
सागर की तरह
चुप रहता था.......!!!
जान ,
रोते रोते खो बैठा....
दिल हँसते हँसते हार दिया....!!
भरपूर लिखी ......
जो शेर दिया ,
शाहकार दिया.....!!!
क्यूँ
जीते-जी दरगौर हुआ....
किस चाह में
तन-मन वार दिया....???
था दुश्मन कौन.
उस पागल का....
किस दिल ने...
उसको मार दिया......???
एक रोज़ ,
तो कोई सोचेगा...
"दीवानों की बस्ती में....!!!"
aapki rachna padh ke kaffi achha lagta hai.... aaj main achanak hi aapke blog pe aa pahuncha.. ye ek bada sanyog hai bas... par kaafi achha sanyog ki apki itni sari rachnaye padhne ko mili....
ReplyDeletedukh iss baat ka hai ki hindi ke rachnakar ko aaj ke samay me itni prasidhhi nahi milti... kavita samajhne wale ab bache hi nahi shayad